आत्मबोध
आज सुबह आँख खुली तो बड़ा उत्साह था, सोचा चलो गणतंत्र दिवस की परेड देखकर आते है, घड़ी उठाकर समय देखा तो सारी उमंग मनो छूमंतर हो गयी, दोपहर के दो बजे हुए थे, पिछले चार वर्ष से परेड देखने की बस कल्पना ही कर रहा हू । सुबह उठकर सुनहरी धूप कि चादर में लहराते हुए तिरंगे और वो भव्य परेड देखना अद्भुत ही होता। मन खिन्न था, भारतवर्ष का सबसे बड़ा महोत्सव जिसे सभी भारतीय अपना धर्म,जाति, रंग, क्षेत्र, ऊच-नीच भुलाकर मनाते है मै उसका हिस्सा न बन सका। मन में विचारो की इसी उथल पुथल के बीच एक आवाज़ सुनाई दी "चल यार चाय पीकर आते है", मैंने हा में सर हिलाया और हम सनी टी स्टॉल कि तरफ चल दिए।
"भैया दो चाय", मेहते ने गम्भीर आवाज़ में कहा और हम चाय के इंतज़ार में बैठ गये। छुट्टी का दिन था, गुनगुनी धूप में ठंडी हवा के थपेड़े शरीर में कपकपी पैदा कर रहे थे, स्कूली बच्चे पार्क में क्रिकेट खेल रहे थे, हमारे कालेज के कुछ छात्र सिगरेट पीते हुए राजनीति पर चर्चा रहे थे। मुझे पता था कि देशहित कि इन विचारो का जीवन उस सिगरेट के बराबर ही है जो इनके हाथो में धीरे धीरे छोटी होती जा रही है। पास में ही १५-१६ साल के दो बच्चे बैठे बात कर थे। "क्या यार ये २६ जनवरी भी रविवार को ही पड़नी थी साली एक छुट्टी बर्बाद हो गयी "। सुनकर दुःख हुआ पर खुद को ये कहकर समझा लिया बच्चे है शायद अभी समझते नहीं है।
वापस आते समय रास्ते में मोरे और गुप्ते मिले। "अरे सर जी कैसे है" , मोरे ने कहा। "ठीक हू", हसते हुए मैंने कहा। चलो सर हुक्का पीकर आते है, सुना है पास में ही कोई नया लॉन्ज खुला है। नहीं यार कमरे में जाकर कुछ काम करना है, मैंने टालते हुए कहा। क्या सर आज तो २६ जनवरी है आज नही पियोगे तो कब पियोगे। न कहते हुए मैं वापस चलने लगा। मेहते आने वाले मिड टर्म एग्जाम को लेकर परेशान था और परीक्षा में कम से कम पढ़कर अधिक से अधिक अंक लाने कि कोई योजना बता रहा था, पर मेरे कानो में न तो मेहते कि आवाज़ सुनाई पड़ रही थी और न ही आस पास के नज़ारे दिखाई दे रहे थे, मै बस बीते हुए मिनटो में हुई दो घटनाओ के बीच ही फसा हुआ था। मन में दो ही प्रश्न थे, क्या २६ जनवरी सिर्फ एक छुट्टी है? क्या सरकार ने २६ जनवरी को नशा करना अनिवार्य किया हुआ है?
कमरे पर पहुचने ही वाला था रास्ते में दो प्रोफेसर्स बातचीत कर रहे थे। शर्मा जी आप तो आज पत्नी के साथ ससुराल जाने वाले थे? क्या हुआ? अब क्या बताऊ सिन्हा जी, इरादा तो ससुराल में दो दिन आराम फरमाने का था पर ये कम्बख्त २६ जनवरी, फालतू कि परेड के चक्कर में पूरा दिन बर्बाद हो गया, पत्नी जी भी चली गयी है आज खाना भी खुद बनाना पड़ेगा। सोच रहा हु जल्दी रिटायरमेंट ले लू बहुत पैसे कमा लिए अब आराम कि जिंदगी जीना चाहता हू। सही कहा शर्मा जी मै भी सोच रहा हू कि इस सेमेस्टर सपरिवार विदेश यात्रा कर आउ। परीक्षा में सबको पास कर दूंगा तो कोई शिकायत भी नही करेगा। वैसे भी मै यहाँ रहूंगा तो कौन सा बच्चे आइंस्टीन बन जायेंगे।
बाल, युवा और वृद्ध तीनो पीडियो के विचार सुनने के बाद मैं आत्मग्लानि से मुक्त होने लगा था। सुबह कि लापरवाही से खुद को देशद्रोही समझने वाली मेरी आत्मा अब खुद को राष्ट्रभक्त समझकर गुरुर कर रही थी। "मुझे अपनी गलती का एहसास तो है, कम से कम मै देश की इज्जत तो करता हु" मैंने खुद से ही कहा। यही सोचते हुए कमरे का दरवाजा खोल ही रहा था कि तभी कमरे की सफाई करने वाला सोनू आ गया," भैया १० रुपये दे दो, समोसे खा लूंगा ". मैंने खीझते हुए जवाब दिया कल ही तो ५० रुपये दिए थे क्या किया". भैया आज वो २६ जनवरी थी न तो २० रुपये का झंडा ले लिया और ३० रूपये के लड्डू लेकर गरीब बच्चो को खिला दिये, आखिर वो भी तो इसी देश का हिस्सा है, अब त्यौहार में पैसे खर्च नही करूँगा तो कब करूँगा मै अवाक् रह गया, न उससे बोलने को शब्द थे और न नज़र मिलाने कि हिम्मत।
दरवाजा खोलकर चुपचाप अंदर आ गया। कमरे के अँधेरे में खुद को सुरक्षित महसूस रहा था। चलो यहॉ तो कोई ऐसा नही है जो इस नाकारा देशवाशी को घूर रहा हो। रजाई ओढ़कर मैं बिस्तर पर लेट गया सोते वक़्त ख्याल आया चलो कोई बात नही १५ अगस्त को हिसाब बराबर कर देंगे ।
आज सुबह आँख खुली तो घड़ी पर नज़र गयी दोपहर के तीन बजे थे, बाहर आया तो मेहते दिखा । "आज क्लास में क्या हुआ ?मै तो सोता ही रह गया ", मैंने पूछा । "आज क्लास नही थी भाई", मेहते में बताया। क्यों? मैंने ख़ुशी और असमंजस से पूछा। आज १५ अगस्त है, मै तो हुक्का पीकर आ रहा हू, सही जगह है तुम भी घूम आना ।
No comments:
Post a Comment