तोहफा
ठाकुर विजयभान सिंह दिल्ली के सबसे बड़े अस्पताल 'मेंड्रिस हॉस्पिटल ' के बिस्तर पर लेटे हुए अपनी आखिरी साँसे गिन रहे थे। ठाकुर साहब के दोनों बेटे वीरभान और चंद्रभान अपनी पत्नियों के साथ उनके पास बैठकर ध्यान से उनकी बात सुन रहे थे। "जो काम मै अधूरा छोड़कर जा रहा हू उसे तुमको पूरा करना है",कहते हुए उन्होंने इस दुनिया से विदा ली।
विजयभान जी स्वतंत्रता सेनानी थे, आज़ादी के बाद उन्होंने सेना में भर्ती ली और भारत के लिए दो युद्ध भी लड़े। रिटायरमेंट के बाद पैतृक संपत्ति और कमाये हुए धन से उन्होंने व्यापार शुरू किआ, ईश्वर कि ऐसी कृपा रही कि १० वर्षो के भीतर ही उनकी गिनती देश के सबसे बड़े उद्योगपतियो में होने लगी। ठाकुर साहब के दो पुत्र थे, हालांकि वो अपने दोनों पुत्रो का पूरा ख्याल रखते थे पर उन्हें अपने छोटे पुत्र चंद्रभान से ज्यादा लगाव था।
वीरभान ३२ वर्ष का महत्वाकांछी नवयुवक था। लम्बी चौड़ी कद काठी, गोरा रंग, गठीला बदन और रौबदार मूछे मानो उसके नाम को सार्थक करती हों। उसकी पत्नी सावित्री की सुंदरता कि चर्चा पूरे शहर में थी। सावित्री अपने पिता और जाने माने वकील रामनाथ राय कि अकेली संतान थी। वीरभान चन्द्रभान से नफरत करता था, उसे लगता था कि उनके पिता हमेशा उससे पक्षपात करते है और चंद्रभान को ज्यादा प्रेम करते है।
वहीं चंद्रभान कि उम्र २८ वर्ष थी, शारीर से अंत्यंत साधारण सा दिखने वाला ये युवक व्यक्तित्व से अत्यंत प्रभावशाली था। उसके तौर तरीको और बात करने के अंदाज से अक्सर ठाकुर विजयभान जी कि याद आ जाती थी। चंद्रभान ने अपने पिता के समाजसेवी मित्र सुधीर मिश्र कि पुत्री कंचन से विवाह किया था। कंचन मध्यम वर्ग परिवार से थी पर पैसे और रुतबे कि चमक धमक उसे हमेशा से ही आकर्षित करती थी।
वैसे तो ठाकुर साहब के जीवन में किसी चीज़ कि कमी नही थी पर मृत्यु के कुछ वक़्त पहले वे परेशान और चिंतित रहते थे। पुत्रो के पूछने पर उन्होंने मन कि पीड़ा बतायी। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी होने के नाते उन्हें देश और समाज से बड़ा लगाव था। इसीलिए आज़ादी के बाद उन्होंने सेना में जाने का निर्णय लिया था। पर जीवन के इस अंतिम मोड़ पर आकर उन्हें ये महसूस हो रहा था कि उन्होंने समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी का पूर्ण रूप से निर्वाह नही किया। इन्ही बातो को सोचकर उनका मन असंतुष्ट रहता था।
वसीहत के अनुसार दोनों भाइयो को बराबर कि संपत्ति मिल गयी। वीरभान दिन रात मेहनत करकर व्यापार को बढ़ाने में लग गया। पिता से मिली हुई अपार संपत्ति और अपने कौशल से वह सफलता के नए आयाम छूने लगा। कुछ ही वर्षो में वो भारतीय उद्योगजगत का जाना पहचाना चेहरा बन गया।
दूसरी तरफ चंद्रभान ने अपने लिए अलग राह चुनी। उसे अपने पिता के आखिरी शब्द बार बार सुनाई पड़ते थे। उसने अपना जीवन समाज को समर्पित करने का फैसला लिया। पिता से मिली सारी संपत्ति से उसने स्कूल, कॉलेज, अस्पताल व आश्रम बनवाये, जहा जरूरतमंद और गरीबो के लिए सारी सुविधाये मुफ्त थी। खुद एक छोटे से मकान में साधारण सा जीवन व्यतीत करता था। कंचन को ये बात हमेशा चुभती थी। वो हमेशा सोचती थी इतना धन होने के बाद भी हम बड़े घर में क्यों नही रहते, आराम की ज़िन्दगी क्यों नही बिताते। कभी कभी गुस्से में आकर वो चंद्रभान से बात कह भी देती, देखो सावित्री भाभी बता रही थी कि आज उन्होंने नयी कार ली है, उनके पास तो हीरो का हार है, घर में पचास नौकर है। चंद्रभान हसकर कहता इन छोटी मोटी चीजो में क्या रखा है, तुम्हे तो कोई अनमोल तोहफा लाकर दूंगा। "मेरे मरने से पहले दे देना" कंचन खीझ कर बोलती ।
इस वक़्त तक वीरभान भारतीय बाज़ार का बेताज बादशाह बन गया था। सुबह कि चाय दिल्ली में तो शाम का नाश्ता न्यूयॉर्क में होता था। उसकी कंपनी सुई से लेकर जहाज तक सभी वस्तुओ का उत्पादन करती थी। वो अंतरराष्ट्रीय बाज़ार का उभरता हुआ सबसे युवा चेहरा बन चुका था। राजनेताओ के साथ उठना बैठना था। सरकारी नीतियो में अब उसका सीधा हस्तक्षेप होता था।
उधर चंद्रभान शांतिपूर्वक अपना काम कर रहे थे। अब वो गरीबो के बीच अत्यंत लोकप्रिय हो गये थे। पर धीरे धीरे पैसा ख़त्म हो रहा था, अपना सारा पैसा तो उन्होंने देश और समाज कि मदद के लिए खर्च कर दिया। यहाँ तक कि घर में जरुरतमंद सामान के अलावा कुछ बाकि न रह गया था। वो चिंतित थे कि आगे जीवनयापन कैसे होगा। वीरभान के डर से कोई भी सक्षम व्यक्ति मदद को आगे आने को तैयार न था। सरकार भी उनकी संस्थाओ को कोई खास मदद नही देती थी।
तभी उसी बीच देश में वो घटना घटी जिसने पूरे देश को हिलाकर रख दिया। देश के सबसे बड़े समाचार पत्र ने घोटालो की एक लम्बी श्रृंखला को उजागर किया। वीरभान समेत कई बड़े उद्योगपतियो और मंत्रियो के नामो का खुलासा हुआ। सभी को न्यायिक हिरासत में ले लिया गया, उनकी सम्पतियो को सील कर दिया गया। आक्रोशित जनता ने वीरभान के घर को तहस नहस कर दिया। सावित्री किसी तरह अपने पुत्र को लेकर वहा से निकली।
मुकदमा चला, सबूत पुख्ता थे, वीरभान समेत सभी आरोपियो को उम्रकैद कि सजा सुनाई गयी। वीरभान के लिए सब कुछ खत्म हो चुका था। उन्हें तो ये भी नही पता था कि उनकी पत्नी और बच्चे का क्या हुआ। वो जिन्दा भी है या नही। अगर ज़िंदा है तो कहा है। सावित्री छुप छुप कर अपना जीवन व्यतीत कर रही थी। कभी फूटपाथ पर सोती तो कभी रेलवे स्टेशन पर। उसके पिता का देहांत हो चुका था और रिश्तेदारो से अपनी सुरक्षा का हवाला देकर साथ रखने से मन कर दिया।
चंद्रभान अब बीमार रहने लगे थे, उनमे चलने फिरने कि भी शक्ति नही रह गयी थी। पिछले एक हफ्ते से वो सरकारी अस्पताल में भर्ती थे। डॉक्टरो की कमी और सही देखभाल न होने से असमय ही उनकी मृत्यु हो गयी। अस्पताल के बाहर लाखो कि भीड़ थी। समाज का निचला वर्ग उन्हें अपना भगवान मानने लगा था। भारतमाता के इस सपूत कि विदाई पर सारा देश चीख रहा था। सभी कि आँखें नम थी। उनके पार्थिव शरीर को लेकर पूरे शहर में रथ यात्रा निकाली गयी। सड़को पर सिर्फ चेहरे ही चेहरे दिख रहे थे। पूरे शहर में "चंद्रभान जी अमर रहे " "जब तक सूरज चाँद रहेगा चंद्रभान तेरा नाम रहेगा " जैसे नारे गूँज रहे थे। कंचन रथ में बैठी हुयी सब कुछ देख रही थी। भीड़ में खड़े एक एक व्यक्ति कि आँखों में उसके पति के जाने का दुःख और उसके प्रति संवेदना साफ झलक रही थी। भीड़ में उसकी नज़र अचानक एक औरत से मिली, पहचानने में एक पल भी नही लगा कि अपने आचल में अपने पुत्र को छिपाये वह सावित्री थी। आज उसे अपने सारे सवालो के जवाब मिल गये थे। चंद्रभान अपना वादा पूरा कर गये थे, वो अनमोल तोहफा आज उसे मिल गया था।
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